झाबुआ। भारत में अलग-अलग धर्मों के लोगों के साथ ही बहुत सारे आदिवासी समुदाय भी प्यार और प्रेम से रहते हैं। इन आदिवासी समुदायों के भी अपनी अनूठी संस्कृति, परंपरा और त्योहार हैं। बड़े ही धूमधाम से वह अपने त्योहारों को मनाते हैं।

आज हम बात करेंगे मध्य प्रदेश के आदिवासियों के त्योहार ‘भगोरिया’ के बारे में। भगोरिया उत्सव होली से पहले मार्च महीने में सात दिनों तक मनाया जाता है। इस त्योहार के मेले में आदिवासी संस्कृति और आधुनिक जीवन का संगम देखने को मिलता है। इस दौरान आदिवासी लोग सज-धजकर पारंपरिक वेश-भूषा में मेले में शिरकत होते हैं। आदिवासी लड़कियां भी मेले में सज-धज कर आती हैं और हाथों पर टैटू गुदवाती हैं।

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भगोरिया उत्सव की शुरुआत राजा भोज के समय से हुई थी, उस समय दो भील राजा कासूमरा और बालून ने अपनी राजधानी में भगोर मेले का आयोजन किया था, इसके बाद दूसरे भील राजाओं ने भी अपने क्षेत्रों में इस मेले का आयोजन करना शुरू कर दिया।

इस उत्सव में व्यापार-व्यवसाय के साथ उल्लास मनाया जाता है। यह जीवन और प्रेम का उत्सव है जो संगीत, नृत्य और रंगों के साथ मनाया जाता है। परंपरागत रूप से, उत्सव मनाने वाले अपने परिवार के साथ सजी हुई बैलगाड़ियों पर यात्रा करते हैं। वहां, वे होली मनाने के लिए आवश्यक चीजें खरीदते हैं, पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों पर नृत्य करते हैं, “लोकगीत” नामक गीत गाते हैं और क्षेत्र के लोगों से मिलते हैं।

भगोरिया उत्सव में गोट प्रथा भी थी, इस प्रथा के मुताबिक, महिलाएं समूह में बाज़ार में आती थीं और किसी परिचित पुरुष को पकड़कर उससे ठिठौली करती थीं। इसके बदले में वह पुरुष मेले में घूमने और झूलने का खर्च देता था या पान खिलाता था।