भोपाल। 25 जून 1975 को भारत में जो आपातकाल (Emergency on press) लागू हुआ उसको तो लगभग सभी जानते हैं, लेकिन हम आपातकाल की उस तारीख का ज़िक्र करेंगे जिसकी चर्चा बहुत कम होती है या फिर यूं कहें कि लोगों को उसकी जानकारी नहीं होती। ये तारीख है 28 जून…यानी कि आपातकाल लागू होने के ठीक दो दिन बाद की तारीख। 28 जून को जो आपातकाल लागू हुआ वो उस संस्था पर था जिसकी आजादी की दुहाई आज हम लोग हर बात पर देते हैं। सत्तापक्ष हो, विपक्ष हो या फिर आमजन सभी को अपनी बात कहने के लिए उस संस्था का सहयोग चाहिए होता है। हम बात कर रहे हैं प्रेस की आजादी पर आपातकाल की।

अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई

दरअसल, इंदिरा गांधी के सुझाव पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के आदेश पर आपातकाल (Emergency on press) की घोषणा की गई थी। आपातकाल लागू होने के साथ ही विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया। उसी वक्त दिल्ली स्थित तमाम बड़े अखबारों के दफ्तर की बिजली काट दी गई। जनता तक जाने वाली सभी खबरों को सरकार की ओर से सेंसर किया जाने लगा। इसका असर ये था कि लोगों को देश में हो रही हलचल की सही जानकारी नहीं मिल पा रही थी।

खबरों को सेंसर किया जाने लगा

आजाद भारत में ऐसा पहली बार हुआ,जब सरकार ने प्रेस पर प्रतिबंध (Emergency on press) लगाए। आलम यह था कि समाचार पत्रों में छपने वाली खबरों को सेंसर किया जाने लगा। इतना ही नहीं अखबार छापने से पहले सरकार की अनुमति लेने की बंदिश भी लगा दी गई। आपातकाल के दौरान 3801 समाचार-पत्रों के डिक्लेरेशन जब्त कर लिए गए। साथ ही 327 पत्रकारों को मीसा में बंद कर दिया गया और 290 अखबारों के विज्ञापन बंद कर दिए गए। हालात इस कदर बिगड़े कि टाइम और गार्जियन अखबारों के समाचार-प्रतिनिधियों को भारत से जाने के लिए कह दिया गया। रॉयटर समेत अन्य एजेंसियों के टेलेक्स और टेलीफोन काट दिए गए।

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जनता में पनप रहे आक्रोश से अनजान थीं इंदिरा गांधी

प्रेस पर ऐसे कठोर अंकुश लगाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी जमीनी हकीकत से दूर हो गईं। जनता के एक बड़े वर्ग में भीतर-भीतर ऐसा आक्रोश पनपा कि जब आपातकाल हटने के बाद मार्च 1977 में संसदीय चुनाव हुए, तब लगभग पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया। प्रेस की आजादी छीनने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी थी।