मनेन्द्रगढ़, मनोज राठौर। जिले में रस भरे महुआ टपकने लगे हैं। लोग तीन चार बजे ही उठकर जंगल में जाकर महुआ पेड़ के नीचे महुआ बिना शुरू कर दिए हैं। यह सीजन उन आदिवासी ग्रामीणों के लिए त्योहार की तरह है। इसी से उन परिवार का पालन होता हैं। जिसके लिये पूरे परिवार के साथ सुबह चार से तीन बजे जंगल में पहुंच कर महुआ के छोटे बड़े लगभग लाख पेड़ हैं। इन पेड़ों के नीचे महुआ फूल बिछे पड़े हैं जिनकी खुशबू से पूरा जंगल महक उठा है।

बता दें कि आदिवासी समुदाय में महुआ सीजन किसी पर्व से कम नही होता है। महुआ जब टपकना शुरू होता है तो रोजगार के लिए बाहर गये लोग भी वापस घर लौट आते हैं। इस तरह से यह सीजन बिछ़ड़े स्वजन के मेल मिलाप का भी कारण बनता है। आदिवासियों का पूरा कुनबा मिलकर महुआ फूल का संग्रहण करता है। सीजन में तो आदिवासियों के घरों में ताला लगा रहता है क्योंकि सुबह से ही परिवार के सभी लोग टोकरी लेकर महुआ बीनने खेत और जंगलों में निकल जाते हैं। रात में ‘बियारी करके खेत में आ जाते हैं और रात में यदि न देख रेख करें तो जंगली जानवर महुआ खा जाते हैं’। ये ग्रामीण अपने पूरे परिवार के साथ महुआ बिनने जाते हैं फिर भी पूरा महुआ नहीं बिन पाते। पेड़ के नीचे महुआ सूख जाता है जिसे बटोर लेते हैं’।

ग्रामीणों का कहना है कि 5 से 8 क्विंटल सूखा महुआ हर साल मिल जाता है जिसे 25 से 30 रुपये प्रति किलो की दर से व्यापारी खरीद लेते हैं। हमारी यह खेती पूरी तरह से प्राकृतिक और बिना लागत वाली है। एमसीबी जिले के जंगली व आदिवासी क्षेत्रों में देशी शराब निर्माण भी आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत है। महामारी के समय मे इससे सेनिटाइजर का भी निर्माण किया गया लेकिन किसानों के लिये तो यह बैलों, गायों और अन्य कृषि उपयोगी पशुओं को तंदुरुस्त बनाने वाली बेशकीमती दवा है। कई आदिवासी अंचलों में महुये के लड्डू और कई मिष्ठान तैयार किये जाते हैं। कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रीय व्यंजन जैसे महुये की खीर, पूरण पूरी और महुये वाला चीला ये आदिवासी संस्कृति के खास व्यंजन हैं। और पूजा पाठ में भी महुआ का महत्व है।

बुद्धसेन सिंह बताते हैं कि हम लोग आदिवासी हैं। महुआ का 36 प्रकार का भोजन बनाते हैं कभी महुआ का दारु बना लेते हैं कभी भूंज कर खा लेते हैं। कभी लाई महुआ को मिक्स कर कढ़ाई में कुटकर खा लेते हैं। यह हमारा बरसात का असली खुराक है। महुआ हमारे आजीविका का प्रमुख साधन है।

सुंदर यादव बताते हैं कि सुबह जल्दी उठकर महुआ बीनने जाते हैं। दोपहर एक दो बजे तक बिनते हैं। इसके बाद घर में लाकर इसे सुखाते हैं। फिर बाजार में बेचते हैं। बेचकर अपना खर्चा पानी चलता है। इसी तरह बिन बटोरकर नमक तेल चलाते रहते हैं। नमक फ्री मिल रहा है। मोदी सरकार दें रहा हैं।

सुरेश कुमार पाव छात्र बताता है की महुआ बिनते हैं। सुखवाते हैं फिर बेचते हैं फिर मिठाई खा लेते हैं। सुबह उठते हैं फिर महुआ बीनने जाते है।

सुमेर राम बैगा बताते हैं कि सुबह चार बजे अपने लड़के और पड़ोसी के बच्चों को उठाता हूं। मेरे आस-पास के सभी लोग उठकर महुआ बीनने जाते है। सब जंगल जाते है। सब अपना खाना पीना वहीं पर बनाते हैं। इसके बाद हम लोग दोपहर तीन- चार बजे लौटते हैं। हमको पैसे की कमी होती है तो हम दुकान में महुआ को लेकर जाते हैं। हमारा बैंक है महुआ । हमारे यहां एक तो वनवासी आदमी है। वन फुल खाकर हमारे माता-पिता जिए हैं उसी प्रकार से हम लोग जी रहे हैं।